Modi, Shah, Doval, RSS do not think beyond winning the next panchayat election somewhere in the North East and selling the remaining family silver. Your strategic thinking would be treated as antinational behaviour of an Urban Naxal. Vishwaguru has the mythical past glory and the abasement suffered during Mughal rule to worry about. As for the future hegemony, let China have it because the USA is fading and India is preparing for UP elections.
अफगानिस्तान युद्ध में अमरीका की हार-- एक लम्बा लेख
पिछले 20 साल से अमरीका और अफगानिस्तान के बीच युद्ध चल रहा था, जिसमें एक तरफ अमरीका की घुसपैठ सेना थी तो दूसरी ओर कट्टरपंथी तालिबान। हालाँकि कुछ लोग इस युद्ध से इनकार करते हैं। वे कहते हैं कि अमरीका-तालिबान युद्ध एक भ्रम है। ऐसी बातें वही कह सकता है जो पिछले 20 साल के अफगानी इतिहास से परिचित न हो।
पिछली शताब्दी के आखिरी दशक में अमरीकी साम्राज्यवादियों ने दुनिया पर अपना वर्चस्व कायम करने के लिए कई नव-उदारवादी तौर-तरीके इजाद किये, जिसमें मुस्लिम आतंकवाद का हौवा एक है। उन्होंने किसी भी स्थापित सत्ता के खिलाफ लड़नेवालों को आतंकवादी, चरमपन्थी, खून पीनेवाले पिशाच के रूप में चित्रित करने में सफलता हासिल की। साम्राज्यवादी मीडिया ने पूरी दुनिया में तथाकथित आतंकवादियों को खूँखार दरिंदों के रूप में पेश किया। दुनिया भर में क्रांतिकारी ताकतों को, जो अपने देश की अन्यायी सरकारों के खिलाफ लड़ रही थीं, उन्हें भी आतंकवादी कहा गया। आतंकवाद का हौवा हर पूँजीवादी बुद्धिजीवी और आम जनता को आतंकित करने लगा।
जब यह स्थिति बन गयी और अमरीका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला हुआ, तो अमरीका ने इसे पूरी दुनिया पर हमले के रूप में प्रचारित-प्रसारित किया और इसे अफगानिस्तान पर हमले के लिए एक बहाने के तौर पर इस्तेमाल किया।
यह वही अमरीका है, जो आज भी दुनिया के आठ सौ से अधिक क्षेत्रों में अपने सैनिक अड्डे जबरन बनाये रखा है, यह वही अमरीका है, जिसने लाखों वियतनामी, उत्तर कोरियाई, जापनी लोगों का कत्लेआम किया, लेकिन उसे आतंकवादी नहीं कहा गया। यह वही अमरीका है, जिसने लाखों इण्डोनेशियाई कम्युनिस्टों के नरसंहार में भाग लिया, युगोस्लाविया पर हमला करके लोगों की जाने लीं, हर जगह, हर कहीं लोकतंत्र की रक्षा के नाम पर तीसरी दुनिया के देशों में हत्याएं करने में आगे रहा। यह सब नोम चोमस्की और जॉन बेलामी फोस्टर की किताबों में लिपिबद्ध है और जिस साहस के साथ अमरीकी होते हुए भी उन्होंने अमरीका के युद्ध अपराधों का परदाफाश किया है, दुनिया के सामने उसे रखा है, उसके लिए अगर हम उनका शुक्रगुजार नहीं होते तो हम पर लानत है।
जब कुछ लोग अफगानिस्तान से अमरीकी हथियारबंद सैनिकों की विदाई पर आँसू बहाते हैं तो इस बात पर किसी भी न्यायप्रिय इंसान के खून का खौल उठना लाजमी है। इस पर दुष्यंत का शेर याद आये बिना नहीं रहता-- “रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया/ इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारो।”
अमरीका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के बाद अमरीकी राष्ट्रपति बुश बोला, “या तो आप हमारे साथ हैं या आतंकवादियों के साथ।” इस तरह अमरीकी साम्राज्यवाद ने एक ऐसा दर्शन गढ़ लिया था कि जिसमें आपके चुनने की आजादी खत्म कर दी गयी थी। आज भी यह दर्शन प्रतिक्रियावादियों की बड़ी मदद कर रहा है यानी या तो आप हमारे साथ हैं, नहीं तो दुश्मन के साथ। उन्मादी बुश ने आतंकवाद के हौवा का फायदा उठाया और अफगानिस्तान पर हमला बोल दिया। अमरीका ने बिन लादेन को छिपाए रखने के लिए अफगानिस्तान की सत्ता में काबिज तालिबान को जिम्मेदार ठहराया। यह सभी जानते हैं कि न केवल तालिबान बल्कि इस्लामिक देशों में हथियारबंद विद्रोहियों को पैदा करने, उन्हें पालने-पोषने और बड़ा करने का काम अमरीका ने अपने प्रतिद्वंद्वी सोवियत रूस को पछाड़ने के लिए किया था, लेकिन जब रूस टूट गया तो उसे इनकी जरूरत नहीं रह गयी, लेकिन तब-तक इन विद्रोहियों ने अपने-अपने इलाकों में अमरीका से स्वतंत्र अपना अस्तित्व कायम कर लिया था। जिन्न बोतल से बाहर निकल चुका था, और अपनी भूमिका निभाये बिना वापस बोतल में जाने के लिए तैयार नहीं था। इसलिए ये विद्रोही अमरीकी राह के रोड़े बन गए थे, जिन्हें हटाना जरुरी था। इन्हें ही आतंकवादी कहकर पूरी दुनिया में इनकी भर्त्सना की गयी।
अमरीका द्वारा अफगानिस्तान पर हमला उसी तरह एक युद्ध अपराध है, जिस तरह उसके द्वारा वियतनाम, ईराक, सीरिया आदि पर किया गया हमला युद्ध अपराध है। इन देशों पर हमला इन्हें गुलाम बनाकर इनके संसाधनों जैसे—खनिज, पेट्रोलियम आदि को लूटने के लिए किया गया था। यह उसी तरह एक युद्ध अपराध है, जिस तरह हिटलर की सेना द्वारा दूसरे देशों पर किया गया हमला युद्ध अपराध था।
अफगानिस्तान पर हमले के बाद तालिबानी अमरीकी सेना से हारकर अंडरग्राउंड हो गये और अमरीकी सेना के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध लड़ने लग गये। अमरीका ने अफगानिस्तान में करजई के नेतृत्त्व में एक पिट्ठू सरकार बना ली। लेकिन 20 साल में कोई ऐसा दिन नहीं गुजरा जब अमरीकी घुसपैठियों के खिलाफ तालिबानी न लडे हों और कोई ऐसा दिन नहीं गुजरा जब पश्चिम की साम्राज्यवादी मीडिया ने उन्हें जल्लाद के रूप में चित्रित न किया हो।
तालिबानी लड़ाकों का दोष बस इतना है कि वे बेहद पुरानी विचारधारा से बेहद नया युद्ध लड़ रहे थे, उनके पास न तो हथियार आधुनिक थे और न ही विचार। हर तरह की धार्मिक विचारधारा की तरह ही इस्लामिक विचारधारा भी इतिहास की चीज बन गयी है, बस उसे ज़िंदा बनाये रखने के लिए उसके प्रेत लड़ रहे हैं। लेकिन तालिबानी प्रेत चाहे जितने कट्टरपंथी हों, वे किसी भी रूप में कम देशभक्त नहीं हैं क्योंकि वे किसी भी विदेशी ताकत को अपनी सर-जमीं पर बर्दाश्त नहीं कर सकते।
पश्चिम की साम्राज्यवादी मीडिया ने रात-दिन यह प्रचारित किया कि तालिबानी अफगानिस्तान की जनता के खिलाफ कहर बरसा रहे हैं। लेकिन इस बात का जवाब न तो पश्चिमी मीडिया के पास है और न ही तालिबान के खिलाफ नफरत में अंधे हो गये लोगों के पास कि जब तालिबानी लोग अफगानिस्तान की जनता के खिलाफ कहर बरसा रहे थे तो वह कौन सी ताकत थी जिसने “दयालु” अमरीकी सेना और उसकी पिट्ठू सरकार के खिलाफ तालिबानियों को मजबूत करती चली गयी। इसलिए यह बात गले से नहीं उतरती कि तालिबानी लोग अफगानी जनता के खिलाफ धार्मिक उन्माद के जरिये कहर बरसा रहे थे।
तालिबानी मजबूत क्यों होते चले गए? इसे समझने के लिए पूरी दुनिया के इतिहास से एक सबक याद रखना होगा, वह सबक है कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद पूरी दुनिया की जनता की चेतना इतनी बढ़ गयी कि वह अपने देश की भ्रष्ट से भ्रष्टतम सरकार को स्वीकार कर सकती है, लेकिन विदेशी सेना या सरकार को नहीं। वैसे भी अफगानिस्तानी जनता ने कभी विदेशी शासन को स्वीकार नहीं किया। पहले वे अंग्रेजों से लडे, फिर रूसियों से लडे और उसके बाद अमरीकियों से लडे, और सभी को भगाया।
अफागान युद्ध में अमरीका कैसे हारा?/ It is written by a friend of mine, as the article is longer, I had to divide it into two pieces, for your kind perusal, I can read Hindi but I cant type, sorry for the deficiency.
आर्थिक रूप से यह युद्ध अमरीका के लिए घाटे का सौदा बन गया था। साल 2010 से 2012 के बीच जब अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों की संख्या एक लाख से अधिक हो गई थी, उस समय इस युद्ध में अमेरिका का सालाना ख़र्च सौ अरब डॉलर से अधिक था, जबकि 2018 में सालाना ख़र्च 45 अरब डॉलर था। अक्तूबर 2001 से सितंबर 2019 के बीच 778 अरब डॉलर ख़र्च हुए। यह जानकारी खुद अमरीकी सरकार ने उपलब्ध कराई है।
युद्ध में अमरीकी हताहतों पर गौर करें तो पता चलता है कि अब तक इस युद्ध में 2300 से अधिक अमेरिकी सैनिक अफ़ग़ानिस्तान में जान गंवा चुके हैं जबकि 20,660 सैनिक लड़ाई के दौरान घायल भी हुए हैं। अमरीका की पिट्ठू सरकार की हालत तो इससे भी खराब है। इस युद्ध में 64,100 से अधिक अफ़ग़ानिस्तानी सैनिक और पुलिसकर्मी मारे जा चुके हैं।
अफगानिस्तान युद्ध एक जमीनी लड़ाई थी, उन युद्धों की तरह नहीं, जिसे तथाकथित बुद्धिजीवी अपने ख्यालों में ही लड़ लिया करते हैं। युद्ध के शुरूआती दौर में जब अमरीका अफगानिस्तान पर हवाई हमला कर रहा था तो बढ़त की स्थिति में था और तालिबान पीछे हट रहा था, लेकिन जैसे ही अमरीकी सेना शहरों को कब्जाने के लिए जमीन पर उतरी, उसे नाको चने चबाने पर मजबूर कर दिया गया। 10 साल बाद भी अमरीकी सैनिक देश पर पूरी तरह कब्जा न जमा सकें और अमरीका पीछे हटते हुए अपने सैनिकों को कम करने पर मजबूर हुआ। तब से आज तक उसने कठपुतली सरकार के अफगानी सैनिकों को प्रशिक्षित कर तालिबान से लडाने का काम किया, लेकिन वे इतने कमजोर साबित हुए कि शहर-दर-शहर हारते चले गये। अंत में जब इस साल अमरीकी सेना अफगानिस्तान से भागी तो बिना एक गोली दागे, तालिबान ने राजधानी काबुल पर कब्जा कर लिया।
कहावत है कि हारी हुई सेना के जनरल एक-दूसरे पर आरोप लगाते हैं। यही हाल अमरीका का हो रहा है। वह अपनी हार पचा नहीं पा रहा है। पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने मौजूदा राष्ट्रपति जो बाइडन पर कमज़ोर, अक्षम और रणनीतिक तौर पर पूर्ण विफल होने का आरोप लगाया है। जबकि बाइडन समर्थकों ने ट्रंप पर भी निशाना साधते हुए आरोप लगाया कि ‘सैनिक वापसी के उनके समझौते भी इसके लिए ज़िम्मेदार हैं।’ काबुल के पूर्व अमेरिकी सैन्य कमांडर, मीडियाकर्मी और राजनीतिज्ञ इस बात की चर्चा कर रहे हैं कि तालिबान के सत्ता पर काबिज होने के बाद अफगानिस्तान के हालात विनाशकारी हो गये हैं। सेना वापसी का फैसला ठीक नहीं था। यह एक भयंकर भूल थी। बातें यहाँ तक हो रही कि अफगानिस्तान युद्ध अमरीका की इतिहास की सबसे बड़ी भूलों में से एक है।
2018 में क़तर की राजधानी दोहा में अमेरिका और तालिबान के बीच नौ राउंड बातचीत हुई। उसके बाद बातचीत पटरी से उतर गयी. ट्रम्प प्रशासन के समय तालिबान से हुई यह शान्ति वार्ता भी अमरीका की हार का ही एक पहलू है. सवाल है कि आतंकवाद को सबसे बड़ा दुश्मन मानने वाला अमरीका इतना मजबूर क्यों हो गया कि उसे तालिबान के साथ शान्ति वार्ता करनी पड़ी?
अमरीका की हार केवल इस बात में नहीं है कि उसे अफगानिस्तान से बेआबरू होकर निकलना पड़ा और दुनिया भर में उसकी पराभव के चर्चे हो रहे हैं, बल्कि उसकी हार इस बात में भी है कि मध्य एशिया के इस क्षेत्र में अब उसके मुकाबले रूस-चीन खेमा मजबूत हो जाएगा। इससे पहले भी तुर्की और पाकिस्तान, जो उसकी तरफ थे, अब रूस-चीन खेमे की ओर चले गये हैं। इस तरह इस पूरे क्षेत्र में रूस-चीन खेमे के साथ इरान, तुर्की और पाकिस्तान तो हैं ही, ईराक और सीरिया की भी नजदीकियाँ इनसे बढ़ रही है।
भारत की भाजपा सरकार अभी तक यह तय नहीं कर पा रहा है कि वह तालिबान की सत्ता के साथ वार्ता शुरू करे या नहीं क्योंकि उसके साथ वार्ता का अर्थ कहीं-न-कहीं उसे मान्यता देना होगा, जबकि घरेलू राजनीति में भाजपा सरकार खुद को तालिबान की विरोधी कहती रही है और आतंकवाद के खिलाफ ‘जीरो टोलरेंस’ की नीति अपनाने का दावा करती रही है। उधर दूसरी ओर तालिबान ने भारत से सम्बन्ध पूरी तरह काट लिया है।
तालिबान के हाथ में अफगानिस्तान की कमान
जिन्हें वर्गों की समझदारी नहीं, आधुनिक समाज में पूँजीपति वर्ग कैसे शासन करता है और उसकी उत्पादन प्रणाली, कबीलाई और सामन्ती उत्पादन प्रणाली से श्रेष्ठ है, इन बातों को नहीं समझते वे तालिबान के आने से डरे हुए हैं। सवाल है कि भारत में सामन्ती मानसिकता वाले हिन्दुत्वादी किस तरह की व्यवस्था चला रहे हैं? क्या वे कांग्रेस से अलग कोई अपनी अलग प्रणाली लेकर आये हैं? नहीं, वे भी कांग्रेस की तरह अमरीकी छत्रछाया में पलनेवाली पूंजीवादी व्यवस्था के हिमायती हैं। फर्क बस इतना है कि वे हिन्दुओं का भयदोहन करके, अल्पसंख्कों को निशाना बनाकर और प्रतिक्रियावादी मूल्य-मान्यता के जरिये समाज को धर्म-उन्माद में धकेल रहे हैं।
तालिबानी कट्टरपंथी शासन में आने से पहले चाहे जितनी कबीलाई बर्बरता दिखा लें, हालाँकि 20 साल पहले के और आज के तालिबान में इस मामले में फर्क है और यह फर्क विदेशी सेना से लड़ने और अपनी जनता के साथ चोली-दामन के रिश्ते के चलते विकसित हुआ है, लेकिन फिर भी अगर वे शासन सम्हालते हैं तो वे कौन सी व्यवस्था लागू करेंगे? कबीलाई? सामन्ती? नहीं। क्योंकि यह दोनों व्यवस्थाएँ आज दुनिया से आउटडेटिड हो गयी हैं, इसलिए दुनिया भर के मध्यम वर्ग को घबराने की जरूरत नहीं, तालिबानी अपने देश के उच्च वर्ग (पूंजीवादी) और दूसरे पूंजीवादी-साम्राज्यवादी देशों के अनुरूप पूंजीवादी व्यवस्था ही लागू करेंगे। वे इस मामले में मदद के लिए दूसरे देशों की ओर देखेंगे क्योंकि वे अकेले दम पर अफगानिस्तान को पूंजीवादी रास्ते पर आगे नहीं ले जा सकते। इसलिए वे रूस-चीन का दामन पकड़ेंगे। अमरीका के मुकाबले रुस-चीन खेमा और मजबूत होगा। इस रूप में भी अमरीकी खेमा हारते हुए पीछे हटने को मजबूर है।
जहाँ तक अफगानिस्तान की न्यायिक व्यवस्था की बात है तो यह स्पष्ट है कि तालिबानी वहाँ शरिया क़ानून लागू करेंगे, उनके प्रवक्ता ने यह बात स्वीकार भी की है। जिस तरह सऊदी अरब का पूँजीवाद बड़े आराम से शरिया क़ानून के साथ अस्तित्व में है, जिस तरह भारत में सामन्ती-बर्बर-कबीलाई मानसिकता के लोग कोर्ट-कचहरी तथा शासन व्यवस्था में भरे हुए हैं और उससे पूँजीवाद का मेल बना हुआ है, उसी तरह इसमें कोई बड़ी दिक्कत नहीं कि कट्टरपंथी और शरिया क़ानून के हिमायती तालिबानी अफगानिस्तान में बड़े मजे से पूँजीवाद को लागू कर सकते हैं और वहां का पूँजीवादी वर्ग और मध्यम वर्ग सामन्ती और कबीलाई बर्बरता की ओर से आँखें उसी तरह मूंदे रहे और अक्सर उसे शह भी दे, जिस तरह वह भारत सहित तीसरी दुनिया के देशों में देते आ रहे हैं।
हाँ, इन देशों की जनता की बात अलग है। अगर वह सही विचारों से लेश और संगठित हो जाए तो हर तरह के प्रतिक्रियावादी को उठाकर कूड़े में फेंक देगी, चाहे वह तालिबानी हो, या मनुवादी, या दूसरा कोई।
इन सब में एक बात सबसे अहम है कि साम्राज्यवादी अमरीका बैकफुट पर है। साम्राज्यवादी अन्तर्विरोध तीज हो रहे हैं और रूस-चीन का नया साम्राज्यवादी खेमा हर जगह अमरीका के सामने चुनौती पेश कर रहा है।
pseudo-encirclement of China gives them the fodder and fuel they need to up the ante in disputed areas. the quad is not only an empty threat, it is a trap for the countries that bite the bait because it can lead down the path to trade blocs. smaller (and richer) developed countries can straddle or pivot between trading blocs easily; leaving the less nimble economies in a lurch.
pipelines are vulnerable to disruptions too. the Chinese have been shafted in oil trade globally several times since Katrina. if the Chinese ever actually get desperate for hydrocarbons, they will deal with Russia, walk into Siberia, and leave Tibet.
as the hoi polloi are brainwashed into believing that the future will be electric cars, few are asking about the wisdom of building hydrocarbon infrastructure (roads, pipelines, oil tankers, etc.). if electric reaches critical mass, then nearly 100% of hydrocarbons will be used for making plastics, polymers, etc. etc. dolphins are not going to be happy about the least accountable and environmentally conscious country in the world mass manufacturing the most polluting thing in the universe after transporting oil diluted with the most carcinogenic solvents known to humans across thousands of miles of the world's largest source of clean water.
if China and its buttered buddies want to put benzene in their groundwater, they are welcome to. the pipeline should be as far away from the Himalayas as possible, so that if(when) it ruptures, the benzoil flows into their green valleys and not India's.
only a genocidally inclined mind can come up with a plan to put an oil pipeline through Himalayas. they want to put it near Siachen so that India has an interest in protecting the pipeline to prevent irreversible ecological damage in the region.
imho, the Himalayas should be declared a biosphere reserve and only construction of electric trains infra and roads should be allowed there. no high-pollution-potential industries.
1. A pipeline passing through afghanistan is never going to be feasible. Afghanistan can never be governed by a single authority in power. If a pipeline was possible america would have never left afghanistan.
2. The decision to move out of afghanistan was taken by trump. Trump administration was already negotiating with taliban in qatar. Biden is just following the same policy. Linking this was quad is meaningless.
Those commenting (on Twitter) on the impossibility of laying pipelines through rugged Afghan terrain haven’t seen the CRH network crisscrossing the rugged Chinese terrain. Try a 300kmph ride on a train from Shanghai to Kunming. It goes like a bullet at one elevation through mountains and over valleys.
I remember when Manishankar Aiyar was Oil minister, he was pushing for an oil pipeline from Iran to India thru Pakistan. I guess it would have changed the geo-political scene in the neighborhood.
@Sonali, I guess Twitter has made your id block my id - cmreddy2. appreciate if you can unblock .
Why would the Chinese go for a pipeline through Afghanistan, considering its hostility?
CPEC already provides them with an option to avoid the Malacca Strait through Gwadar port which would connect Xinjiang through Kashgar.
CPEC only has faced hostilities in the form of attacks on Chinese citizens. What would be the reason to go for a more hostile environment.
Modi, Shah, Doval, RSS do not think beyond winning the next panchayat election somewhere in the North East and selling the remaining family silver. Your strategic thinking would be treated as antinational behaviour of an Urban Naxal. Vishwaguru has the mythical past glory and the abasement suffered during Mughal rule to worry about. As for the future hegemony, let China have it because the USA is fading and India is preparing for UP elections.
अफगानिस्तान युद्ध में अमरीका की हार-- एक लम्बा लेख
पिछले 20 साल से अमरीका और अफगानिस्तान के बीच युद्ध चल रहा था, जिसमें एक तरफ अमरीका की घुसपैठ सेना थी तो दूसरी ओर कट्टरपंथी तालिबान। हालाँकि कुछ लोग इस युद्ध से इनकार करते हैं। वे कहते हैं कि अमरीका-तालिबान युद्ध एक भ्रम है। ऐसी बातें वही कह सकता है जो पिछले 20 साल के अफगानी इतिहास से परिचित न हो।
पिछली शताब्दी के आखिरी दशक में अमरीकी साम्राज्यवादियों ने दुनिया पर अपना वर्चस्व कायम करने के लिए कई नव-उदारवादी तौर-तरीके इजाद किये, जिसमें मुस्लिम आतंकवाद का हौवा एक है। उन्होंने किसी भी स्थापित सत्ता के खिलाफ लड़नेवालों को आतंकवादी, चरमपन्थी, खून पीनेवाले पिशाच के रूप में चित्रित करने में सफलता हासिल की। साम्राज्यवादी मीडिया ने पूरी दुनिया में तथाकथित आतंकवादियों को खूँखार दरिंदों के रूप में पेश किया। दुनिया भर में क्रांतिकारी ताकतों को, जो अपने देश की अन्यायी सरकारों के खिलाफ लड़ रही थीं, उन्हें भी आतंकवादी कहा गया। आतंकवाद का हौवा हर पूँजीवादी बुद्धिजीवी और आम जनता को आतंकित करने लगा।
जब यह स्थिति बन गयी और अमरीका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला हुआ, तो अमरीका ने इसे पूरी दुनिया पर हमले के रूप में प्रचारित-प्रसारित किया और इसे अफगानिस्तान पर हमले के लिए एक बहाने के तौर पर इस्तेमाल किया।
यह वही अमरीका है, जो आज भी दुनिया के आठ सौ से अधिक क्षेत्रों में अपने सैनिक अड्डे जबरन बनाये रखा है, यह वही अमरीका है, जिसने लाखों वियतनामी, उत्तर कोरियाई, जापनी लोगों का कत्लेआम किया, लेकिन उसे आतंकवादी नहीं कहा गया। यह वही अमरीका है, जिसने लाखों इण्डोनेशियाई कम्युनिस्टों के नरसंहार में भाग लिया, युगोस्लाविया पर हमला करके लोगों की जाने लीं, हर जगह, हर कहीं लोकतंत्र की रक्षा के नाम पर तीसरी दुनिया के देशों में हत्याएं करने में आगे रहा। यह सब नोम चोमस्की और जॉन बेलामी फोस्टर की किताबों में लिपिबद्ध है और जिस साहस के साथ अमरीकी होते हुए भी उन्होंने अमरीका के युद्ध अपराधों का परदाफाश किया है, दुनिया के सामने उसे रखा है, उसके लिए अगर हम उनका शुक्रगुजार नहीं होते तो हम पर लानत है।
जब कुछ लोग अफगानिस्तान से अमरीकी हथियारबंद सैनिकों की विदाई पर आँसू बहाते हैं तो इस बात पर किसी भी न्यायप्रिय इंसान के खून का खौल उठना लाजमी है। इस पर दुष्यंत का शेर याद आये बिना नहीं रहता-- “रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया/ इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारो।”
अमरीका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के बाद अमरीकी राष्ट्रपति बुश बोला, “या तो आप हमारे साथ हैं या आतंकवादियों के साथ।” इस तरह अमरीकी साम्राज्यवाद ने एक ऐसा दर्शन गढ़ लिया था कि जिसमें आपके चुनने की आजादी खत्म कर दी गयी थी। आज भी यह दर्शन प्रतिक्रियावादियों की बड़ी मदद कर रहा है यानी या तो आप हमारे साथ हैं, नहीं तो दुश्मन के साथ। उन्मादी बुश ने आतंकवाद के हौवा का फायदा उठाया और अफगानिस्तान पर हमला बोल दिया। अमरीका ने बिन लादेन को छिपाए रखने के लिए अफगानिस्तान की सत्ता में काबिज तालिबान को जिम्मेदार ठहराया। यह सभी जानते हैं कि न केवल तालिबान बल्कि इस्लामिक देशों में हथियारबंद विद्रोहियों को पैदा करने, उन्हें पालने-पोषने और बड़ा करने का काम अमरीका ने अपने प्रतिद्वंद्वी सोवियत रूस को पछाड़ने के लिए किया था, लेकिन जब रूस टूट गया तो उसे इनकी जरूरत नहीं रह गयी, लेकिन तब-तक इन विद्रोहियों ने अपने-अपने इलाकों में अमरीका से स्वतंत्र अपना अस्तित्व कायम कर लिया था। जिन्न बोतल से बाहर निकल चुका था, और अपनी भूमिका निभाये बिना वापस बोतल में जाने के लिए तैयार नहीं था। इसलिए ये विद्रोही अमरीकी राह के रोड़े बन गए थे, जिन्हें हटाना जरुरी था। इन्हें ही आतंकवादी कहकर पूरी दुनिया में इनकी भर्त्सना की गयी।
अमरीका द्वारा अफगानिस्तान पर हमला उसी तरह एक युद्ध अपराध है, जिस तरह उसके द्वारा वियतनाम, ईराक, सीरिया आदि पर किया गया हमला युद्ध अपराध है। इन देशों पर हमला इन्हें गुलाम बनाकर इनके संसाधनों जैसे—खनिज, पेट्रोलियम आदि को लूटने के लिए किया गया था। यह उसी तरह एक युद्ध अपराध है, जिस तरह हिटलर की सेना द्वारा दूसरे देशों पर किया गया हमला युद्ध अपराध था।
अफगानिस्तान पर हमले के बाद तालिबानी अमरीकी सेना से हारकर अंडरग्राउंड हो गये और अमरीकी सेना के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध लड़ने लग गये। अमरीका ने अफगानिस्तान में करजई के नेतृत्त्व में एक पिट्ठू सरकार बना ली। लेकिन 20 साल में कोई ऐसा दिन नहीं गुजरा जब अमरीकी घुसपैठियों के खिलाफ तालिबानी न लडे हों और कोई ऐसा दिन नहीं गुजरा जब पश्चिम की साम्राज्यवादी मीडिया ने उन्हें जल्लाद के रूप में चित्रित न किया हो।
तालिबानी लड़ाकों का दोष बस इतना है कि वे बेहद पुरानी विचारधारा से बेहद नया युद्ध लड़ रहे थे, उनके पास न तो हथियार आधुनिक थे और न ही विचार। हर तरह की धार्मिक विचारधारा की तरह ही इस्लामिक विचारधारा भी इतिहास की चीज बन गयी है, बस उसे ज़िंदा बनाये रखने के लिए उसके प्रेत लड़ रहे हैं। लेकिन तालिबानी प्रेत चाहे जितने कट्टरपंथी हों, वे किसी भी रूप में कम देशभक्त नहीं हैं क्योंकि वे किसी भी विदेशी ताकत को अपनी सर-जमीं पर बर्दाश्त नहीं कर सकते।
पश्चिम की साम्राज्यवादी मीडिया ने रात-दिन यह प्रचारित किया कि तालिबानी अफगानिस्तान की जनता के खिलाफ कहर बरसा रहे हैं। लेकिन इस बात का जवाब न तो पश्चिमी मीडिया के पास है और न ही तालिबान के खिलाफ नफरत में अंधे हो गये लोगों के पास कि जब तालिबानी लोग अफगानिस्तान की जनता के खिलाफ कहर बरसा रहे थे तो वह कौन सी ताकत थी जिसने “दयालु” अमरीकी सेना और उसकी पिट्ठू सरकार के खिलाफ तालिबानियों को मजबूत करती चली गयी। इसलिए यह बात गले से नहीं उतरती कि तालिबानी लोग अफगानी जनता के खिलाफ धार्मिक उन्माद के जरिये कहर बरसा रहे थे।
तालिबानी मजबूत क्यों होते चले गए? इसे समझने के लिए पूरी दुनिया के इतिहास से एक सबक याद रखना होगा, वह सबक है कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद पूरी दुनिया की जनता की चेतना इतनी बढ़ गयी कि वह अपने देश की भ्रष्ट से भ्रष्टतम सरकार को स्वीकार कर सकती है, लेकिन विदेशी सेना या सरकार को नहीं। वैसे भी अफगानिस्तानी जनता ने कभी विदेशी शासन को स्वीकार नहीं किया। पहले वे अंग्रेजों से लडे, फिर रूसियों से लडे और उसके बाद अमरीकियों से लडे, और सभी को भगाया।
अफागान युद्ध में अमरीका कैसे हारा?/ It is written by a friend of mine, as the article is longer, I had to divide it into two pieces, for your kind perusal, I can read Hindi but I cant type, sorry for the deficiency.
आर्थिक रूप से यह युद्ध अमरीका के लिए घाटे का सौदा बन गया था। साल 2010 से 2012 के बीच जब अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों की संख्या एक लाख से अधिक हो गई थी, उस समय इस युद्ध में अमेरिका का सालाना ख़र्च सौ अरब डॉलर से अधिक था, जबकि 2018 में सालाना ख़र्च 45 अरब डॉलर था। अक्तूबर 2001 से सितंबर 2019 के बीच 778 अरब डॉलर ख़र्च हुए। यह जानकारी खुद अमरीकी सरकार ने उपलब्ध कराई है।
युद्ध में अमरीकी हताहतों पर गौर करें तो पता चलता है कि अब तक इस युद्ध में 2300 से अधिक अमेरिकी सैनिक अफ़ग़ानिस्तान में जान गंवा चुके हैं जबकि 20,660 सैनिक लड़ाई के दौरान घायल भी हुए हैं। अमरीका की पिट्ठू सरकार की हालत तो इससे भी खराब है। इस युद्ध में 64,100 से अधिक अफ़ग़ानिस्तानी सैनिक और पुलिसकर्मी मारे जा चुके हैं।
अफगानिस्तान युद्ध एक जमीनी लड़ाई थी, उन युद्धों की तरह नहीं, जिसे तथाकथित बुद्धिजीवी अपने ख्यालों में ही लड़ लिया करते हैं। युद्ध के शुरूआती दौर में जब अमरीका अफगानिस्तान पर हवाई हमला कर रहा था तो बढ़त की स्थिति में था और तालिबान पीछे हट रहा था, लेकिन जैसे ही अमरीकी सेना शहरों को कब्जाने के लिए जमीन पर उतरी, उसे नाको चने चबाने पर मजबूर कर दिया गया। 10 साल बाद भी अमरीकी सैनिक देश पर पूरी तरह कब्जा न जमा सकें और अमरीका पीछे हटते हुए अपने सैनिकों को कम करने पर मजबूर हुआ। तब से आज तक उसने कठपुतली सरकार के अफगानी सैनिकों को प्रशिक्षित कर तालिबान से लडाने का काम किया, लेकिन वे इतने कमजोर साबित हुए कि शहर-दर-शहर हारते चले गये। अंत में जब इस साल अमरीकी सेना अफगानिस्तान से भागी तो बिना एक गोली दागे, तालिबान ने राजधानी काबुल पर कब्जा कर लिया।
कहावत है कि हारी हुई सेना के जनरल एक-दूसरे पर आरोप लगाते हैं। यही हाल अमरीका का हो रहा है। वह अपनी हार पचा नहीं पा रहा है। पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने मौजूदा राष्ट्रपति जो बाइडन पर कमज़ोर, अक्षम और रणनीतिक तौर पर पूर्ण विफल होने का आरोप लगाया है। जबकि बाइडन समर्थकों ने ट्रंप पर भी निशाना साधते हुए आरोप लगाया कि ‘सैनिक वापसी के उनके समझौते भी इसके लिए ज़िम्मेदार हैं।’ काबुल के पूर्व अमेरिकी सैन्य कमांडर, मीडियाकर्मी और राजनीतिज्ञ इस बात की चर्चा कर रहे हैं कि तालिबान के सत्ता पर काबिज होने के बाद अफगानिस्तान के हालात विनाशकारी हो गये हैं। सेना वापसी का फैसला ठीक नहीं था। यह एक भयंकर भूल थी। बातें यहाँ तक हो रही कि अफगानिस्तान युद्ध अमरीका की इतिहास की सबसे बड़ी भूलों में से एक है।
2018 में क़तर की राजधानी दोहा में अमेरिका और तालिबान के बीच नौ राउंड बातचीत हुई। उसके बाद बातचीत पटरी से उतर गयी. ट्रम्प प्रशासन के समय तालिबान से हुई यह शान्ति वार्ता भी अमरीका की हार का ही एक पहलू है. सवाल है कि आतंकवाद को सबसे बड़ा दुश्मन मानने वाला अमरीका इतना मजबूर क्यों हो गया कि उसे तालिबान के साथ शान्ति वार्ता करनी पड़ी?
अमरीका की हार केवल इस बात में नहीं है कि उसे अफगानिस्तान से बेआबरू होकर निकलना पड़ा और दुनिया भर में उसकी पराभव के चर्चे हो रहे हैं, बल्कि उसकी हार इस बात में भी है कि मध्य एशिया के इस क्षेत्र में अब उसके मुकाबले रूस-चीन खेमा मजबूत हो जाएगा। इससे पहले भी तुर्की और पाकिस्तान, जो उसकी तरफ थे, अब रूस-चीन खेमे की ओर चले गये हैं। इस तरह इस पूरे क्षेत्र में रूस-चीन खेमे के साथ इरान, तुर्की और पाकिस्तान तो हैं ही, ईराक और सीरिया की भी नजदीकियाँ इनसे बढ़ रही है।
भारत की भाजपा सरकार अभी तक यह तय नहीं कर पा रहा है कि वह तालिबान की सत्ता के साथ वार्ता शुरू करे या नहीं क्योंकि उसके साथ वार्ता का अर्थ कहीं-न-कहीं उसे मान्यता देना होगा, जबकि घरेलू राजनीति में भाजपा सरकार खुद को तालिबान की विरोधी कहती रही है और आतंकवाद के खिलाफ ‘जीरो टोलरेंस’ की नीति अपनाने का दावा करती रही है। उधर दूसरी ओर तालिबान ने भारत से सम्बन्ध पूरी तरह काट लिया है।
तालिबान के हाथ में अफगानिस्तान की कमान
जिन्हें वर्गों की समझदारी नहीं, आधुनिक समाज में पूँजीपति वर्ग कैसे शासन करता है और उसकी उत्पादन प्रणाली, कबीलाई और सामन्ती उत्पादन प्रणाली से श्रेष्ठ है, इन बातों को नहीं समझते वे तालिबान के आने से डरे हुए हैं। सवाल है कि भारत में सामन्ती मानसिकता वाले हिन्दुत्वादी किस तरह की व्यवस्था चला रहे हैं? क्या वे कांग्रेस से अलग कोई अपनी अलग प्रणाली लेकर आये हैं? नहीं, वे भी कांग्रेस की तरह अमरीकी छत्रछाया में पलनेवाली पूंजीवादी व्यवस्था के हिमायती हैं। फर्क बस इतना है कि वे हिन्दुओं का भयदोहन करके, अल्पसंख्कों को निशाना बनाकर और प्रतिक्रियावादी मूल्य-मान्यता के जरिये समाज को धर्म-उन्माद में धकेल रहे हैं।
तालिबानी कट्टरपंथी शासन में आने से पहले चाहे जितनी कबीलाई बर्बरता दिखा लें, हालाँकि 20 साल पहले के और आज के तालिबान में इस मामले में फर्क है और यह फर्क विदेशी सेना से लड़ने और अपनी जनता के साथ चोली-दामन के रिश्ते के चलते विकसित हुआ है, लेकिन फिर भी अगर वे शासन सम्हालते हैं तो वे कौन सी व्यवस्था लागू करेंगे? कबीलाई? सामन्ती? नहीं। क्योंकि यह दोनों व्यवस्थाएँ आज दुनिया से आउटडेटिड हो गयी हैं, इसलिए दुनिया भर के मध्यम वर्ग को घबराने की जरूरत नहीं, तालिबानी अपने देश के उच्च वर्ग (पूंजीवादी) और दूसरे पूंजीवादी-साम्राज्यवादी देशों के अनुरूप पूंजीवादी व्यवस्था ही लागू करेंगे। वे इस मामले में मदद के लिए दूसरे देशों की ओर देखेंगे क्योंकि वे अकेले दम पर अफगानिस्तान को पूंजीवादी रास्ते पर आगे नहीं ले जा सकते। इसलिए वे रूस-चीन का दामन पकड़ेंगे। अमरीका के मुकाबले रुस-चीन खेमा और मजबूत होगा। इस रूप में भी अमरीकी खेमा हारते हुए पीछे हटने को मजबूर है।
जहाँ तक अफगानिस्तान की न्यायिक व्यवस्था की बात है तो यह स्पष्ट है कि तालिबानी वहाँ शरिया क़ानून लागू करेंगे, उनके प्रवक्ता ने यह बात स्वीकार भी की है। जिस तरह सऊदी अरब का पूँजीवाद बड़े आराम से शरिया क़ानून के साथ अस्तित्व में है, जिस तरह भारत में सामन्ती-बर्बर-कबीलाई मानसिकता के लोग कोर्ट-कचहरी तथा शासन व्यवस्था में भरे हुए हैं और उससे पूँजीवाद का मेल बना हुआ है, उसी तरह इसमें कोई बड़ी दिक्कत नहीं कि कट्टरपंथी और शरिया क़ानून के हिमायती तालिबानी अफगानिस्तान में बड़े मजे से पूँजीवाद को लागू कर सकते हैं और वहां का पूँजीवादी वर्ग और मध्यम वर्ग सामन्ती और कबीलाई बर्बरता की ओर से आँखें उसी तरह मूंदे रहे और अक्सर उसे शह भी दे, जिस तरह वह भारत सहित तीसरी दुनिया के देशों में देते आ रहे हैं।
हाँ, इन देशों की जनता की बात अलग है। अगर वह सही विचारों से लेश और संगठित हो जाए तो हर तरह के प्रतिक्रियावादी को उठाकर कूड़े में फेंक देगी, चाहे वह तालिबानी हो, या मनुवादी, या दूसरा कोई।
इन सब में एक बात सबसे अहम है कि साम्राज्यवादी अमरीका बैकफुट पर है। साम्राज्यवादी अन्तर्विरोध तीज हो रहे हैं और रूस-चीन का नया साम्राज्यवादी खेमा हर जगह अमरीका के सामने चुनौती पेश कर रहा है।
pseudo-encirclement of China gives them the fodder and fuel they need to up the ante in disputed areas. the quad is not only an empty threat, it is a trap for the countries that bite the bait because it can lead down the path to trade blocs. smaller (and richer) developed countries can straddle or pivot between trading blocs easily; leaving the less nimble economies in a lurch.
pipelines are vulnerable to disruptions too. the Chinese have been shafted in oil trade globally several times since Katrina. if the Chinese ever actually get desperate for hydrocarbons, they will deal with Russia, walk into Siberia, and leave Tibet.
as the hoi polloi are brainwashed into believing that the future will be electric cars, few are asking about the wisdom of building hydrocarbon infrastructure (roads, pipelines, oil tankers, etc.). if electric reaches critical mass, then nearly 100% of hydrocarbons will be used for making plastics, polymers, etc. etc. dolphins are not going to be happy about the least accountable and environmentally conscious country in the world mass manufacturing the most polluting thing in the universe after transporting oil diluted with the most carcinogenic solvents known to humans across thousands of miles of the world's largest source of clean water.
if China and its buttered buddies want to put benzene in their groundwater, they are welcome to. the pipeline should be as far away from the Himalayas as possible, so that if(when) it ruptures, the benzoil flows into their green valleys and not India's.
only a genocidally inclined mind can come up with a plan to put an oil pipeline through Himalayas. they want to put it near Siachen so that India has an interest in protecting the pipeline to prevent irreversible ecological damage in the region.
imho, the Himalayas should be declared a biosphere reserve and only construction of electric trains infra and roads should be allowed there. no high-pollution-potential industries.
Just a few points
1. A pipeline passing through afghanistan is never going to be feasible. Afghanistan can never be governed by a single authority in power. If a pipeline was possible america would have never left afghanistan.
2. The decision to move out of afghanistan was taken by trump. Trump administration was already negotiating with taliban in qatar. Biden is just following the same policy. Linking this was quad is meaningless.
Excellent piece!
Sonali Ranaday shatters the sham of ‘neutrality’ of SG with her brilliant essay and some ponderous thoughts.
Those commenting (on Twitter) on the impossibility of laying pipelines through rugged Afghan terrain haven’t seen the CRH network crisscrossing the rugged Chinese terrain. Try a 300kmph ride on a train from Shanghai to Kunming. It goes like a bullet at one elevation through mountains and over valleys.
Brilliant analysis.
Brilliant analysis
I remember when Manishankar Aiyar was Oil minister, he was pushing for an oil pipeline from Iran to India thru Pakistan. I guess it would have changed the geo-political scene in the neighborhood.
@Sonali, I guess Twitter has made your id block my id - cmreddy2. appreciate if you can unblock .
By any chance covid19 is also a product of secret pact between US & China ?
Brilliant piece. Rationale and balanced. A tight slap on “feel good gurus” of snake-oil salesman.
https://static-dw-com.cdn.ampproject.org/ii/AW/s/static.dw.com/image/43745949_105.png
Logically explained. Enough to vaporize all the snake oil.
Very well written. Looks like America has made a secret pact with China.
bang on target - its something most defense thinkers cant wrap their head around. For inspiration look at Russian Nord Stream2.